खबरों के खिलाड़ी: सनातन धर्म के मुद्दे पर मचे संग्राम में किसे फायदा, किसे नुकसान? जानें विश्लेषकों की राय

खबरों के खिलाड़ी: सनातन धर्म के मुद्दे पर मचे संग्राम में किसे फायदा, किसे नुकसान? जानें विश्लेषकों की राय


बीते पूरे हफ्ते सनातन का मुद्दा छाया रहा। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और द्रमुक विधायक उदयनिधि स्टालिन के बयान से इसकी शुरुआत हुई। उदयनिधि ने एक सम्मेलन में सनातन धर्म की तुलना मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों से कर दी। इसके बाद कुछ पार्टियों ने उनके बयान की निंदा की, तो कुछ नेताओं ने आपत्तिजनक टिप्पणी का समर्थन करते हुए खुद भी सीमा लांघ दी। 

इस मुद्दे का देश की सियासत पर क्या असर पड़ रहा है, इस पर चर्चा करने के लिए ‘खबरों के खिलाड़ी’ की इस नई कड़ी में हमारे साथ वरिष्ठ विश्लेषक रामकृपाल सिंह, विनोद अग्निहोत्री, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रेम कुमार और समीर चौगांवकर मौजूद रहे। आइए जानते हैं विश्लेषकों की राय….

रामकृपाल सिंह

सनातन का विरोध या सुधार ही सनातन है। यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है। पेरियार ने जो ब्राह्मण विरोधी आंदोलन चलाया, वही द्रमुक के मूल डीएनए में है। उदाहरण के लिए जब मंडल बना था, उस दही में से 20-25 साल में मलाई, मट्ठा अलग-अलग हो गया। वो क्रीम सपा, राजद जैसी पार्टियों के साथ चला गया। वहीं, मट्ठा 2014 के बाद भाजपा के साथ चला गया। भाजपा की सफलता के बाद कहा गया कि उत्तर प्रदेश में जो 50 फीसदी पिछड़े हैं, उनमें से 20 फीसदी विपक्ष के साथ रह गए, बाकी 30 फीसदी निकल कर भाजपा के साथ जा चुके हैं। 1990-91 में मुलायम-कांशीराम के मिलने पर 70 फीसदी आबादी एकजुट हुई। ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए…’ का नारा सफल रहा, लेकिन 2019 में अखिलेश-मायावती के मिलने पर उन्हें वो सफलता नहीं मिली।  

जूनियर स्टालिन जो कह रहे हैं, वो तमिलनाडु की खांटी राजनीति कर रहे हैं। उनकी कोशिश उत्तर भारत विरोधी सेंटीमेंट को जगाने की है। विपक्ष को भी एक चीज महसूस होने लगी कि हिन्दुस्तान में अगर राष्ट्रीय राजनीति में खुद को बढ़ाना है तो सॉफ्ट हिन्दुत्व को आगे ले जाना होगा। इसलिए ममता से लेकर अखिलेश तक सभी इस ओर जाते दिखते हैं। …सनातनी होने का यह मतलब नहीं है कि हम उसकी कुरीतियों के समर्थन में हैं। सनातन के उदारवाद में अगर कुरीतियां आ गईं तो उन कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन हुआ है, न कि सनातन के खिलाफ। आप सनातन में सुधार की बात कीजिए, लेकिन सनातन को खत्म कर देने की बात करना मूर्खता है।

हर्षवर्धन त्रिपाठी

कांग्रेस के लगातार सत्ता में रहने के दौरान एक धारणा स्थापित की गई कि जो मुखर हिन्दू होता है, वो साम्प्रदायिक होता है। ये नेता कभी हिन्दू आस्था को मन से स्वीकार नहीं करते थे। इस तरह की राजनीति करने वाले नेहरू और इंदिरा को करुणानिधि और पेरियार ने तमिलनाडु से बाहर कर दिया। तमिलनाडु में हुआ हिन्दी विरोध का आंदोलन दरअसल हिन्दू विरोध का आंदोलन है। उन्होंने ब्राह्मणवाद का विरोध करके कांग्रेस को बाहर कर दिया था। अब उसी तमिलनाडु में भाजपा के जितने नेता हैं, वो तीन समुदाय से आते हैं। इन समुदायों को साथ लाकर वहां भाजपा एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रही है। उसे भाजपा उसी तरह अपने पक्ष में करना चाहती है, जैसा उसने यूपी और गुजरात में किया। 

उदयनिधि स्टालिन के पिता वहां मुख्यमंत्री हैं। उनके पिता के पिता करुणानिधि वर्षों मुख्यमंत्री रहे हैं। उसके बाद भी अगर दलितों के खिलाफ वहां अपराध होते हैं तो उन्हें शर्म आनी चाहिए। उत्तर प्रदेश और बिहार में कई पिछड़े और दलित नेता मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद भी वहां स्थितियां क्यों नहीं सुधरीं? ये इन नेताओं की नाकामी है। आरएसएस लगातार हिन्दू एकता की बात करता है। यह बहुत स्पष्ट है। सामाजिक तौर पर उनकी इसी सोच का परिणाम है कि रामनाथ कोविंद, द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति बनते हैं। 

प्रेम कुमार

सनातन का विमर्श पुरातनकालीन है। आज भी अगर छुआछूत है, तो उससे इनकार नहीं किया जा सकता है। इस पर बोलने वाले नेता उसी वर्ग से आते हैं। इस मामले में एक दलित दूसरे दलित की पीड़ा सामने रख रहा है। राजनीतिक दल से जुड़ा दलित ज्यादा जागरूक होता है। वो दलित इस पीड़ा को रख रहा है, लेकिन सनातन के खिलाफ बताया जा रहा है। देश अगर जातियों में विभक्त होगा तो कमजोर होगा।  

यह कोई राजनीतिक सुधार का कार्यक्रम नहीं है। ये धार्मिक सुधार का कार्यक्रम है, लेकिन इस पर दोनों पक्षों से राजनीति हो रही है। 

विनोद अग्निहोत्री

उदयनिधि स्टालिन ने विशुद्ध राजनीतिक उद्देश्य से ही यह बयान दिया है। उनकी विरोधी पार्टी अन्नाद्रमुक इस पर चुप है। केवल गोलमोल कर रही है क्योंकि वो भी उसी राजनीति से निकली है, जिससे द्रमुक निकली है। यही अन्नाद्रमुक अभी भाजपा के साथ है। इसी तरह स्टालिन के बयान पर द्रमुक की सहयोगी कांग्रेस भी गोलमोल कर रही है। उदयनिधि स्टालिन ने जो कहा, वो तो कुछ भी नहीं है। आप 1934 के अंबेडकर की बात पढ़िए, उन्होंने इससे भी बड़ी बातें कहीं हैं। इसी तरह की एक बहस के बाद गांधी ने अंबेडकर को चिट्ठी लिखी थी, उसमें उन्होंने लिखा आप जिस समाज से आते हैं, उसके साथ जितने भीषण अत्याचार हुए हैं, उसके मुकाबले आपकी भाषा काफी नरम है। जिस तरह राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए भाजपा अलग-अलग खिड़कियां खोलकर रखती है, उसी तरह विपक्षी दलों ने भी यह करना सीख लिया है। राजनीति का दोहरापन सब तरफ है। यह मानसिकता का सवाल है। यह राजनीति से ज्यादा सामाजिक आंदोलनों से सुधरेगा। 

मैं भी मानता हूं कि आरएसएस ने समाज सुधार के कई काम किए हैं। इसके बाद भी वहां दलित उत्पीड़न हो रहा है। यह अपने आप में बड़ी विडंबना है। आज की दिक्कत यह है कि उपलब्धियों की जगह आप भावनात्मक मुद्दों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं। बार-बार आप गोलपोस्ट बदल रहे हैं। सनातन को विमर्श की जगह राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है। क्या 2014 के पहले हिन्दू मुखर नहीं था। ऐसा नहीं है। क्या उस समय कुम्भ मेला नहीं होता था, त्योहार नहीं मनाए जाते थे? हां, ये जरूर है आज के जैसी आक्रमकता नहीं थी। 

समीर चौगांवकर

भाजपा 1980 में बनी। भाजपा के पहले अधिवेशन में प्रस्ताव पास हुआ था कि भाजपा हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुत्व की बात करेगी। मुझे लगता है कि भाजपा अपने जन्म से ही स्पष्ट थी कि हम इसकी बात करेंगे तो उत्तर भारत में हम एक बड़ा वोट बैंक तैयार करेंगे। कांग्रेस उस पिच पर भाजपा को परास्त नहीं कर पाई। मुझे लगता है कि यह मुद्दा भाजपा के पक्ष में जाएगा। विपक्ष अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। हो सकता है दक्षिण भारत में यह विपक्ष के लिए ये फायदेमंद हो, लेकिन उत्तर भारत में यह भाजपा के पक्ष में जाएगा। भले ही विपक्ष इस मामले को दबाने की कोशिश करे, भाजपा इसे लोकसभा चुनाव तक भुनाने की कोशिश करेगी। मुझे लगता है कि यह मुद्दा जरूर रहेगा। जिस मुद्दे से राजनीतिक दलों को फायदा दिखता है, उसे वो आगे बढ़ाते हैं। भाजपा इस मुद्दे को आगे लेकर जाएगी। विपक्ष भी इसे इस नजरिये देख रहा है कि भाजपा के साथ जो दलित और पिछड़ा वोटर है वो शायद इससे टूटकर उसके साथ आ सकता है। इसलिए वो भी इसे उठाएगा।



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