गीता प्रेस विवाद: गीता प्रेस नहीं होती तो हिन्दी पट्टी के लाखों अभावग्रस्त बच्चेे पढ़ नहीं पाते

गीता प्रेस विवाद: गीता प्रेस नहीं होती तो हिन्दी पट्टी के लाखों अभावग्रस्त बच्चेे पढ़ नहीं पाते



यह दुनिया का संभवत: सबसे बड़ा प्रेस है जिसने अब तक कोई सौ करोड़ किताबें प्रकाशित की होंगी। ज्ञान का ऐसा प्रसार अभूतपूर्व है ।
– फोटो : अमर उजाला।

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हिन्दी के कुछ वामपंथी आलोचकों, पत्रकारों और जातीय बुद्धिजीवियों के मन में गीता-प्रेस के प्रति जैसी नफ़रत भरी हुई है, उससे लगता है कि उनके पास यदि सत्ता होती तो वे गीता प्रेस पर कभी का बुलडोजर चलवा देते। जबकि हमारा मानना है कि यदि गीता प्रेस जैसा संस्थान/छापाखाना जर्मनी जैसे किसी उन्नत देश में होता तो उसे अब तक राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया जाता।

 

यह दुनिया का संभवत: सबसे बड़ा प्रेस है जिसने अब तक कोई सौ करोड़ किताबें प्रकाशित की होंगी। ज्ञान का ऐसा प्रसार अभूतपूर्व है ।

यह सही है कि गीता प्रेस कोई सुधारवादी संस्था नहीं है। वह यथास्थितिवाद की हिमायती है। वर्णाश्रम और सनातन का प्रचार ही इसका उद्देश्य है। जैसे दुनिया के सभी धर्मों में दकियानूसी विचार पाए जाते हैं वह सनातन और हिंदू धर्म में भी हैं।

गीता प्रेस  असहमतियां 

हमारा एतराज़ गीता प्रेस की आरएसएस से तुलना करने पर था। दोनों की स्थापना असपास ही हुई लेकिन दोनों के विचारों में दिन-रात का अंतर है। गीता प्रेस ने सनातन का प्रचार किया लेकिन कभी सांप्रदायिकता की बात नहीं की। गीता प्रेस आरएसएस की तरह अंग्रेज़ परस्त और मुसलमान विरोधी नहीं रही।

 

गीता प्रेस की एक भजनों की किताब में इतने मुसलमान कवि संकलित हैं जितने रामचंद्र शुक्ल की किताब हिंदी साहित्य का इतिहास में भी नहीं हैं ।



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