लेखक प्रशांत गौतम और उनकी दो किताबें
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कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही देखे जाते हैं। अलीगढ़ के प्रशांत की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले इस प्रतिभाशाली किशोर ने रहस्य-रोमांच से भरा उपन्यास लिख डाला है। प्रशांत इससे पहले खेती-किसानी करने वाले अपने दादा की संघर्षगाथा को उपन्यास के रूप में ढाल चुका है। उसके दोनों उपन्यासों की भाषा अंग्रेजी है। उसके शिक्षक भी उसकी प्रतिभा की तारीफ करते नहीं अघाते।
प्रशांत के पिता आरटीओ दफ्तर में माली का काम करते हैं। घर में कोई ऐसा बौद्धिक माहौल भी नहीं है। संभवतः जीडी पब्लिक स्कूल खैर रोड के प्रशांत में लेखन की नैसर्गिक प्रतिभा कूट-कूटकर भरी है। पहले तो उसने अपने दादा श्यौदान गौतम की जिंदगी पर आधारित एक उपन्यास लिखा। यह उपन्यास एक आम भारतीय किसान की संघर्षगाथा को समेटे हुए है। प्रशांत कहता है कि वह अपने दादा का काफी दुलारा था।
उनके साथ कई-कई घंटे गुजारता। उनसे बातें करता। उसके दादा जिंदगी के पुराने पन्ने पलटते। अपने जमाने की बातें करते। आज के दौर के बदलावों की बात करते। वह प्रगतिवादी थे। उनका बाल विवाह हुआ था, लेकिन वह इसके विरोधी थे। बाल विवाह पर लगी रोक को उचित मानते थे। लेकिन मोबाइल-टीवी के बच्चों और किशोरों पर पड़ रहे दुष्प्रभावों से चिंतित भी रहते थे। उनकी जिंदगी ने प्रशांत को काफी प्रेरित किया।