बसपा सुप्रीमो मायावती।
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लोकसभा चुनाव 2024 में बसपा तीसरी ताकत बनने की कोशिश में है। बसपा न एनडीए में है और न ही विपक्ष इंडिया में शामिल हुई है। मायावती का पूरा फोकस इस पर है कि तीसरा ऐसा मोर्चा बनाया जाए जो इतना मजबूत हो कि सरकार चाहे किसी की भी बने, उसे मजबूर कर दे। यानी राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए मायावती ने अपने नए फार्मूले पर काम शुरू कर दिया है। माना जा रहा है कि इसके लिए मायावती औवेसी की पार्टी आईएमआईएमआई व अन्य किनारे खड़े दलों को साथ ले सकती हैं।
ऐसे कई मौके आए जब सियासी गठबंधन का बसपा को लाभ ही हुआ। हालांकि वर्ष 2007 में बसपा ने अकेले अपने दम पर यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई पर इसके अलावा लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में गठबंधन से बसपा की ताकत ही बढ़ी। अयोध्या में विवादित ढांचे के विध्वंस के प्रदेश में बीजेपी की सरकार गिर गई थी। ऐसे में 1993 में विधानसभा चुनाव हुए। बीजेपी को रोकने के लिए बसपा संस्थापक कांशीराम और सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने हाथ मिला लिया था। दोनों ने मिलकर बीजेपी को यूपी से साफ कर दिया था। बसपा 164 सीट पर लड़कर 67 सीटें जीत गई थी। 12 सीटों से उछलकर बसपा सीधे 67 सीटों पर पहुंची थी। वर्ष 1993 में बसपा का वोट मात्र 11 प्रतिशत। भाजपा को 34 प्रतिशत वोट मिले थे। बावजूद इसके गठबंधन भाजपा पर भारी पड़ा था। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे लेकिन 1995 में यह गठबंधन टूट गया था।
1995 में भी गठबंधन से बनीं सीएम
भाजपा के समर्थन से ही बसपा प्रमुख मायावती 1995 में पहली बार उप्र की मुख्यमंत्री बनीं। हालांकि छह महीने के बाद गिर गई, जिसके चलते यूपी में साल 1996 में विधानसभा चुनाव हुए। अब बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा। इसका असर सपा के साथ हुई गठबंधन जैसा तो नहीं रहा पर बसपा के वोटों में खूब बढोतरी हुई। उसे 27.73 प्रतिशत वोट मिले थे। बसपा 300 सीटों पर लड़कर 66 और कांग्रेस 125 सीटों पर लड़कर 33 सीटें जीतने में सफल रही थी। हालांकि यह गठबंधन टूटा और बसपा ने 1997 में बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली थी।
26 साल बाद पकड़ी थी गठबंधन की राह, हुआ था लाभ
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा पूरी तरह से साफ हो गई। बसपा का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता। आखिरकार पिछले चुनाव यानी वर्ष 2019 में 26 साल बाद फिर बसपा सपा-आरएलडी के साथ गठबंधन में आईं। हैरत की बात यह रही कि इस चुनाव में ने रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह जीते और न ही उनके पुत्र जयंत चौधरी पर बसपा जीरो से 10 सीटों पर आ गई। सपा को मात्र पांच ही सीटें मिल पाई। सबसे ज्यादा लाभ बसपा को ही हुआ।
घटते वोट बैंक के बावजूद गठबंधन नहीं
बसपा का वोट बैंक वर्ष 2012 में करीब 26 फीसदी, 2017 में 22.4 और 2022 में 12.7 फीसदी पर पहुंच गया है। वोटर लगातार छिटक रहे हैं। काडर वोटर तक संभालना मुश्किल हो रहा है पर बसपा ने इस चुनाव में भी अकेले लड़ने की बात कहकर सभी को चौंकाया है। चर्चाएं तमाम हैं। विपक्षी बसपा को भाजपा की बी टीम बताते हैं। एनडीए में तो बसपा संभवत: इसलिए भी जाने से गुरेज कर रही है कि यदि ऐसा हुआ तो इन आरोपों पर कहीं मुहर ही न लग जाए। साथ ही वह इस छवि से निकलने की भी कोशिश कर रही हैँ।
तीसरे ताकत बनने की तैयारी
सियासी गलियारों में एक बड़ी चर्चा यह है कि बसपा दलित मुस्लिम समीकरण को छोड़ना नहीं चाह रही हैं। दलित वोटर तो उनके पास है ही। वह मुस्लिम वोटरों पर दांव खेलने के लिए रणनीति बना रही हैं। बताया जा रहा है कि इसके लिए बसपा और औवेसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (आईएमआईएमआई ) एक साथ आ सकते हैं। यह यूपी में दोनों के लिए एक बड़ी उम्मीदों का मंच हो सकता है। बसपा लगातार मुस्लिम वोटरों को यह समझाने की कोशिश कर रही हैं सपा के साथ जाने से उन्हें लाभ नहीं हुआ है। पूरी ताकत के बावजूद सपा रालोद मिलकर यूपी में भाजपा को नहीं रोक सके। वे यदि बसपा के साथ आ जाते हैं तो बात बन जाएगी। दूसरा, मायावती यह जान चुकी हैं कि सत्ता में भागेदारी के लिए मजबूत होना होगा। ऐसे में इतना जन समर्थन जुटाया जाए कि जिसे भी सरकार बनाने के लिए जरूरत पड़े, वह मायावती के सामने मदद की बात कहे।