PM Narendra Modi (File Photo)
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अविश्वास प्रस्ताव पर बहस में कांग्रेस पर मां भारती को छिन्न भिन्न करने का आरोप लगाया। इस दौरान उन्होंने कच्चातिवु द्वीप की चर्चा की। इस द्वीप को इंदिरा गांधी सरकार ने 49 साल पहले 1974 में श्रीलंका को दे दिया था। पीएम ने इंदिरा के इस फैसले पर सवाल उठाते हुए पूछा कि मां भारती की मौत की कामना करने वालों को बताना चाहिए कि क्या यह द्वीप मां भारती का हिस्सा नहीं था। पीएम ने इस दौरान कहा कि इन्हें तो पता भी नहीं होगा कि यह द्वीप कभी मां भारती का अंग था।
पीएम ने जब इस द्वीप का हवाला दिया तब कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल वॉकआउट कर गए थे। इस पर पीएम ने कहा कि जो बाहर गए हैं, उनसे पूछिये कि ये कच्चातिवु द्वीप क्या है? यह कहां है? यहां इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर देश को गुमराह करने का प्रयास कर रहे हैं। भारत माता की मृत्यु की कामना कर रहे हैं। और ये डीएमके वाले, उनकी सरकार, उनके मुख्यमंत्री मुझे आज भी चिट्ठी लिखते हैं कि मोदी जी कच्चातिवु द्वीप को वापस लाइए। ये कच्चातिवु है क्या? किसने किसी दूसरे देश को दिया था? कब दिया था? क्या ये द्वीप भारत माता नहीं थी। क्या वह हमारी मां भारती का अंग नहीं था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में इसे श्रीलंका को दे दिया गया। यह कांग्रेस का इतिहास है। मां भारती को छिन्न-भिन्न करने का इतिहास।
भारत के दक्षिणी छोर पर है द्वीप
दरअसल यह द्वीप हिंद महासागर में भारत के दक्षिणी छोर पर है। यह भारत और श्रीलंका के बीच सामरिक महत्व का द्वीप है। करीब 285 एकड़ में बसे इस द्वीप पर भारत की श्रीलंका के साथ विवाद की स्थिति रही। यह कभी 17वीं शताब्दी में मदुरई के राजा रामानद के अधीन था। ब्रिटिश शासनकाल में यह द्वीप मद्रास प्रेसीडेंसी के पास आया। आजादी के बाद इसे भारत का हिस्सा माना गया।
सामरिक लिहाज से अहम
यह द्वीप सामरिक महत्व का था और इसका उपयोग मछुआरे करते थे। हालांकि इस द्वीप पर श्रीलंका लगातार दावा जताता रहा। इसी बीच साल 1974 में 26 जून को कोलंबो और 28 जून को दिल्ली में दोनों देशों के बीच इस द्वीप के बारे में बातचीत हुई। इन्हीं दो बैठकों में कुछ शर्तों के साथ इस द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया गया। तब शर्त यह रखी गई कि भारतीय मछुआरे अपना जाल सुखाने के लिए इस द्वीप का इस्तेमाल कर सकेंगे और द्वीप में बने चर्च में भारत के लोगों को बिना वीजा के जाने की अनुमति होगी। इस समझौते का तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने तीखा विरोध किया था।
सुप्रीम कोर्ट भी गया था मामला
इस फैसले से नाराज तमिलनाडु विधानसभा में साल 1991 में प्रस्ताव पारित कर इस द्वीप को वापस लेने की मांग की गई। इसके बाद साल 2008 में जयललिता इस मामले में सुप्रीम कोर्ट गई। सीएम बनने के बाद साल 2011 में एक बार फिर से विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराया।