Delhi : दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा- मातृत्व लाभ महिला की पहचान, गरिमा का मौलिक व अभिन्न अंग, संविदाकर्मी भी हकदार

Delhi : दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा- मातृत्व लाभ महिला की पहचान, गरिमा का मौलिक व अभिन्न अंग, संविदाकर्मी भी हकदार



दिल्ली हाईकोर्ट
– फोटो : एएनआई

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दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि मातृत्व लाभ सिर्फ नियोक्ता और कर्मचारी के बीच वैधानिक अधिकार या संविदात्मक संबंध से उत्पन्न नहीं होते बल्कि यह परिवार शुरू करने और बच्चे को जन्म देने का विकल्प चुनने वाली महिला की पहचान और गरिमा का एक मौलिक और अभिन्न अंग है। एक संविदा महिला कर्मचारी भी मातृत्व लाभ अधिनियम के तहत राहत की हकदार है।

जस्टिस चंद्र धारी सिंह ने बृहस्पतिवार को जारी आदेश में कहा, काम का माहौल बिना किसी बाधा के निर्णय लेने के लिए पर्याप्त अनुकूल होना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक महिला जो करियर और मातृत्व दोनों का चयन करती है, उसे ‘यह नहीं तो वह’ का निर्णय लेने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। 

 जज ने कहा, संविधान एक महिला को बच्चे को जन्म देने के साथ-साथ बच्चे को जन्म न देने की भी स्वतंत्रता देता है। मां व बच्चे के स्वास्थ्य और सर्वोत्तम हित को सुरक्षित करने के लिए मातृत्व अवकाश और लाभों के महत्व को दुनिया भर में मान्यता दी गई है। अदालत दिल्ली राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण (डीएसएलएसए) की एक संविदा कर्मचारी की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। याचिकाकर्ता ने मातृत्व लाभ के अनुरोध को अस्वीकार करने के बाद हाईकोर्ट का रुख किया है। डीएसएलएसए ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता मातृत्व लाभ का दावा करने की हकदार नहीं थी क्योंकि वह सिर्फ एक सूचीबद्ध वकील थी और कोई कर्मचारी नहीं जिसे ऐसे लाभ मिलते हों। 

समाज की महिलाओं को सुरक्षित महसूस कराया जाए

अदालत ने कहा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि समाज की महिलाओं को सुरक्षित महसूस कराया जाए, उन्हें अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में एक दूसरे पर प्रभाव डाले बिना निर्णय लेने में सक्षम होना चाहिए। काम का माहौल एक महिला के लिए इतना अनुकूल होना चाहिए कि वह व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन के संबंध में बिना किसी बाधा के निर्णय ले सके। यह सुनिश्चित किया जा सके कि एक महिला जो करियर और मातृत्व दोनों को चुनती है, उसे ‘या तो’ निर्णय लेने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।

असाधारण मांग नहीं की

अदालत ने कहा, याचिकाकर्ता कुछ भी असाधारण नहीं मांग रही है। किसी प्रक्रिया या कानून के हस्तक्षेप के बिना, एक महिला के मातृत्व अधिकार में बाधा डालना संविधान में दिए गए मौलिग अधिकारों व सामाजिक न्याय के बुनियादी सिद्धांत का उल्लंघन है। अगर एक महिला को ‘आज के युग’ में भी अपने पारिवारिक जीवन और करियर की प्रगति के बीच चयन करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो समाज उसे आगे बढ़ने के साधन प्रदान न करके विफल हो जाएगा।

 



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