बसपा सुप्रीमो मायावती।
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सियासी गलियारों में इस वक्त मायावती की ओर से किसी भी राजनीतिक दल से गठबंधन न किए जाने की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है। कुछ दिन पहले मायावती ने आने वाले लोकसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक पार्टी और बड़े गठबंधन के साथ चुनाव न लड़ने की बात कही थी। ऐसे में राजनीतिक पार्टियों और सियासत को करीब से समझने वालों के लिए मायावती का यह बयान बड़ी पहेली बना हुआ है। दरअसल पहेली इसलिए भी क्योंकि मायावती जब-जब गठबंधन के साथ सियासी मैदान में उतरी हैं तो हमेशा उनका सियासी फायदा ही हुआ है। सवाल यही उठता है कि आखिर इस सियासी फायदे के बावजूद भी मायावती ऐसा कहकर सियासत में कौन सा “सेफ गेम” खेल रहीं हैं।
मायावती ने तीन दिन पहले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आयोजित पार्टी के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों के साथ जब किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन न करने की बात कही तो यह बात राजनीतिक पार्टियों समेत सियासी जानकारों के गले नहीं उतरी। राजनैतिक विश्लेषक देवप्रताप सूर्य कहते हैं कि मायावती ने यह बयान पहली बार नहीं दिया है। इससे पहले भी वह लगातार किसी भी सियासी दल के साथ गठबंधन में न जाने की बात करती रही है। उनका कहना है कि ऐसा करके मायावती न सिर्फ अपने कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को संदेश दे रही है बल्कि आने वाले चार विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी की हैसियत का भी आकलन करने का पूरा रोड मैप तैयार कर रही हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि मायावती इन विधानसभा के चुनावों में मिलने वाले अपने वोट के आधार पर अगली सियासत की राह बनाने की पुख्ता योजना बना चुकी हैं।
सियासी जानकार बताते हैं कि मायावती ने यूं ही गठबंधन में न जाने का फैसला नहीं किया है। जानकारों का मानना है कि बसपा की इस वक्त जो सियासी हैसियत है वह अन्य क्षेत्रीय दलों की तुलना में उतनी मजबूत नहीं है। इसीलिए बहुजन समाज पार्टी की बड़ी रणनीति यही है कि अगले कुछ महीनो में होने वाले चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिलने वाली सीटों और मत प्रतिशत को बड़ा आधार बनाया जाए। सियासी जानकारी का कहना है कि ऐसा करके मायावती के पास किसी भी बड़े सियासी गठबंधन में शामिल होने के लिए मजबूत बैकग्राउंड तैयार हो सकेगा। राजनीतिक विश्लेषक बलवीर सिंह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का महज एक विधायक है। जबकि एक दौर में मायावती की उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार हुआ करती थी। बलवीर सिंह कहते हैं कि ऐसी दशाओं में मायावती के पास बड़े सियासी गठबंधन के सामने अपनी शर्तों के आधार पर किसी भी तरह के समझौते की उम्मीद कम नजर आ रही है। अगर मायावती के पास इन चार राज्यों में मजबूत जनाधार तैयार होता है तो संभव है कि बहुजन समाज पार्टी अपने वोट बैंक और चार राज्यों में मिलने वाले जनाआधार पर अपनी शर्तों के साथ प्रमुखता से बात कर सके।
वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र शुक्ला कहते हैं कि मायावती भले ही गठबंधन में न जाने की बात कर रही हूं लेकिन बसपा को हमेशा गठबंधन में फायदा ही हुआ है। वह कहते हैं 1993 में जब बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया तो 12 सीटों से मायावती की पार्टी 67 सीटों पर पहुंच गई। 1996 में बहुजन समाज पार्टी में पंजाब में अकाली दल के साथ गठबंधन किया तो तीन लोकसभा सीटें जीत ली। 2022 में भी मायावती ने अकाली दल के साथ गठबंधन कर विधानसभा चुनाव में अपने वोट प्रतिशत के साथ एक प्रत्याशी जिताया। पंजाब के अलावा मायावती ने 2018 में अजीत जोगी के साथ छत्तीसगढ़ में चुनाव लड़ा। इस गठबंधन में भी मायावती को फायदा हुआ और दो विधायक जीत गए। जबकि कर्नाटक में जेडीएस के साथ बसपा ने साझेदारी की और वहां भी एक विधायक की जीत के साथ फायदे के सौदे में रही। इसी तरह बिहार में भी गठबंधन की राह पर चलते हुए एक विधायक बसपा की झोली में आया। शुक्ल कहते हैं कि बीते तीन दशक की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी जब-जब गठबंधन के साथ चली है तब तक उसको फायदा हुआ है। इसीलिए मायावती का यह कहना कि वह इन लोकसभा चुनाव में किसी भी दल के साथ गठबंधन नहीं करेंगे सीधे तौर पर गले से बात नीचे नहीं उतर रही है।
बहुजन समाज पार्टी से ताल्लुक रखने वाले नेता भी दबी जुबान से मानते हैं कि उनका वोट प्रतिशत भले कम न हुआ हो लेकिन वह अकेले दम पर लोकसभा के चुनाव में कोई बहुत बड़े उलटफेर करने की हैसियत में नहीं दिख रहे हैं। इसलिए अंदर खाने यह बात जरूर उठ रही है कि लोकसभा चुनावों से पहले गठबंधन की नींव रखी जाए। हालांकि, गठबंधन पर मायावती अपना रुख फिलहाल पहले ही स्पष्ट कर चुकी हैं। लेकिन सियासी गलियारों में कहा यही जा रहा है कि लोकसभा चुनाव से पहले मायावती गठबंधन के रास्ते खोल सकती है। राजनीतिक विश्लेषण जीएल वर्मा कहते हैं कि मायावती आने वाले लोकसभा चुनावों से पहले बहुत ही फूंक फूंक कर सियासी कदम रख रही हैं। इसलिए न सिर्फ अपने मतदाताओं को किसी गठबंधन में जाने का संदेश दे रही है बल्कि एक बड़े जनाधार का खाका भी खींच रही हैं।