Teachers’ Day: कोई बना प्रदेश का चीफ सेक्रेटरी तो किसी ने कंठस्थ याद की भगवद गीता
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कुछ खास है कि काशी में कुदरत ने इतने कुलिश (हीरा) पैदा किए हैं कि गिनती नामुमकिन है। ये देश की सांस्कृतिक राजधानी में संस्कृति और कला की ऐसी हस्तियां हैं, जिन्होंने सफलता के सभी पैमानों को अपनी हुनर से बेहिसाब कर दिया है। साहित्य के पितामह काशीनाथ सिंह और सुरों के खुदा छन्नूलाल मिश्र के जरिये सीखने-सिखाने की पूरी बात…। 87 साल की उम्र में भी देशभर के विश्वविद्यालयों से हिंदी के छात्र गुरुदीक्षा लेने आते हैं।
डॉ. काशीनाथ सिंह, साहित्यकार
बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर और साहित्यकार डॉ. काशीनाथ सिंह कहते हैं, अच्छी शिक्षा एक बीज को बोने की तरह है। अध्यापक जीवन से सेवानिवृत्ति के 30 साल बाद भी काशी नाथ सिंह शिक्षक की ही भूमिका में हैं। 87 साल की उम्र में भी देश भर के विश्वविद्यालयों से हिंदी के छात्र, रंगमंच के नाट्यकर्मी और छोटे-बड़े पर्दे के कलाकार गुरुदीक्षा लेने आते ही रहते हैं। स्वास्थ्य साथ नहीं देरा, इसके बावजूद वह किसी को निराश नहीं करते हैं। काशीनाथ सिंह के मुताबिक उनको अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी से निर्भय होने की शिक्षा मिली थी। उन्होंने विद्यार्थियों को कभी विद्यार्थी नहीं समझा, हमेशा मित्र समझा।
वे कहते हैं, अपने गुरु के संस्कार को ही मैंने अपने विद्यार्थियों में भी रोपा। यही कारण है कि कई छात्र आज सफलता के शिखर पर हैं। हम छात्रों को किताबों के माध्यम से जीवन जीना और संघर्ष करना सिखाते थे। शिक्षक और छात्र के बीच में किताबों के पन्ने नहीं होते, उन पन्नों में जिंदगी होती है। समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है। शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जिसमें गुरु की ऊर्जा बेधड़क बच्चों तक पहुंच सके। हमने अपने गुरु से सीखा था कि असहमति विरोध नहीं होता, विचारों का द्वंद आगे बढ़ाता है। हमारा विकास असहमतियों से हुआ है।
शिष्यों को बांटे संगीत के सप्तक
काशी के संगीत के सिरमौर और स्वरमंडल पर सुरों की जुगलबंदी से गायन का जादू जगाने वाले पद्मविभूषण पं. छन्नूलाल मिश्र की आवाज की खनक अब उनके शिष्यों में भी सुनाई देने लगी है। 87 साल की उम्र के बाद भी उनके अंदर का शिक्षक आज भी मुक्तकंठ से शिष्यों में संगीत के सप्तक बांट रहा है।
पं. छन्नूलाल मिश्र का कहना है कि उनको जो भी अपने गुरु से मिला, उन्होंने सबकुछ अपने शिष्यों को बांट दिया। कर्ता गुरु न कर्ता चेला…जिसने जैसी साधना की उसने संगीत को उस तरह से पाया। बेटी और शिष्या डॉ. नम्रता मिश्रा का कहना है कि पिताजी से ही मैंने परिश्रम, अनुशासन और गुरुभक्ति का ककहरा सीखा है। बतौर गुरु उन्होंने अपने शिष्यों और बेटे-बेटी में कोई अंतर नहीं रखा। पिताजी ने मेहनत करने के साथ ही अनुशासन का जो पाठ पढ़ाया उसे हमने जीवन में उतार लिया है।