नवाब फैजुल्ला खां ने इल्म की रोशनी फैलाने के लिए 250 साल पहले जो पौधा लगाया था वह ज्ञान का विशाल वट वृक्ष बन चुका है। इसे अब रजा लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता है। इस लाइब्रेरी में 17 हजार पांडुलिपियां और 60 हजार किताबें संग्रहीत हैं। इसके बारे में दावा किया जाता है यह एशिया की सबसे बड़ी लाइब्रेरी है।
इस लाइब्रेरी के किताबी खजाने में हजरत अली के हाथ से हिरन की खाल पर लिखी कुरआन है तो सुमेर चंद की फारसी में सोने के पानी से लिखी रामायण। इन दुर्लभ पांडुलिपियों को देखने और शोध कार्य के लिए दुनिया भर से लोग यहां आते हैं। रामपुर रजा लाइब्रेरी का इतिहास दो शताब्दी से ज्यादा पुराना है। इसने निजी संग्रहालय से बनने तक सफर तय किया है।
रोहिल्ला युद्ध के बाद 1774 में फैजुल्ला खान रामपुर रियासत के पहले नवाब बने थे। नवाब फैजुल्ला खां को शुरू से ही किताबों से प्रेम था और उसका संग्रह करने का शौक था। इतिहासकारों के अनुसार नवाब फैजुल्ला खां ने 1774 से लेकर 1794 तक प्राचीन पांडुलिपियों और इस्लामी सुलेख के लघु नमूने के साथ निजी संग्रह से पुस्तकालय की स्थापना की।
इनके बाद जो भी नवाब रहे सभी कवियों, चित्रकारों, सुलेखकों और संगीतकारों को संरक्षण देते रहे। समय के साथ ही यह पुस्तकालय कई गुना बढ़ गया और नवाब अहमद अली खान (1794-1840) के शासनकाल के दौरान संग्रह में उल्लेखनीय विस्तार किया गया। रामपुर रियासत के सभी नवाबों ने पुस्तकालय विस्तार में अहम योगदान दिया। ढाई सौ साल का सफर तय कर रामपुर रजा लाइब्रेरी रामपुर की ही नहीं बल्कि देश का भी गौरव बनकर उभरी है।
1975 में सरकारी हो गई थी लाइब्रेरी
आजादी के बाद राज्यों के भारत संघ में विलय के बाद लाइब्रेरी को न्यास के प्रबंधन के अधीन कर दिया गया, जिसका सृजन 6 अप्रैल, 1951 को किया गया। भारत के पूर्व शिक्षामंत्री प्रोफेसर सैयद नुरूल हसन ने इस पुस्तकालय को 1 जुलाई, 1975 को एक संसद अधिनियम के अधीन कर दिया और फिर इसे संस्कृति मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। अब यह लाइब्रेरी केंद्र सरकार के नियंत्रण में है।