पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को लोकसभा चुनाव से पहले का ट्रायल रन माना जा रहा है। इससे पहले विपक्षी एकता तो नजर नहीं आ रही। भाजपा और कांग्रेस अंदरूनी दिक्कतों से जूझ रही है। भाजपा ने मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया है, वहीं कांग्रेस उम्मीदवार तय करने में समय लगा रही है। ऐसे में क्या समीकरण बनते दिख रहे हैं और दोनों दलों के सामने चुनौती क्या है, खबरों के खिलाड़ी की इस कड़ी में इन्हीं सवालों पर चर्चा हुई। चर्चा के लिए इस बार वरिष्ठ पत्रकार राहुल महाजन, विनोद अग्निहोत्री, पूर्णिमा त्रिपाठी, समीर चौगांवकर और प्रेम कुमार मौजूद रहे।
राजस्थान के हालात को किस तरह देखते हैं? भाजपा दीया कुमारी को टिकट दे चुकी है। कांग्रेस की सूची आने का इंतजार है।
पूर्णिमा त्रिपाठी
दीया कुमारी को टिकट मिलने पर कई लोगों को आश्चर्य था। भैरोसिंह शेखावत के दामाद को टिकट मिलने के कयास थे। राजस्थान में भाजपा की मुश्किलें सिर्फ एक-दो सीटों पर नहीं हैं। वसुंधरा राजे के कई करीबी नेताओं को टिकट नहीं मिला है। भाजपा में आखिर क्यों यह सोच आई कि वसुंधरा का विकल्प दीया कुमारी हो सकती हैं। कांग्रेस की सूची अभी आना बाकी है। कांग्रेस ने पितृ पक्ष की बात कहकर सूची को रोककर रखा है। इससे कांग्रेस को वक्त मिल गया है। चुनाव बेशक दिलचस्प होने वाले हैं। मध्यप्रदेश में तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह चुके हैं कि हमारा चेहरा तो कमल है। देखना होगा कि राजस्थान में क्या होता है।
राहुल महाजन
राजनीति में लोग आते ही इसलिए हैं कि शीर्ष पदों तक पहुंच पाएं। इसलिए यह संघर्ष होता है। हिमाचल के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ, लेकिन लोगों ने मुद्दों के आधार पर एक दल को चुना। राजस्थान, मध्यप्रदेश में भाजपा के बीच अंदरूनी संघर्ष नजर आता है। यह कहा जाता है कि भाजपा वसुंधरा और शिवराज से किनारा कर रही है। कई सांसद चुनाव लड़ रहे हैं। तीन केंद्रीय मंत्री मैदान में हैं। भाजपा की सोच यह हो गई है कि कई मौजूदा विधायक जीतने योग्य नहीं होते, इसलिए इतने बदलाव हो रहे हैं। राजस्थान में भाजपा वसुंधरा को दूर करेगी तो उसकी दिक्कत बढ़ेगी। कांग्रेस में भी नेताओं के बीच अंदरूनी कलह है।
समीर चौगांवकर
सात सांसदों को भाजपा ने मैदान में उतारा। ये सभी मुश्किल सीटें हैं। दीया कुमारी को जरूर आसान सीट दी गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि दीया कुमारी के साथ ही ऐसा क्यों? मुझे लगता है कि उन्हें यह संदेश दिया गया है कि वे पूरे प्रदेश में सक्रिय रहें, लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे वसुंधरा राजे की उत्तराधिकारी होंगी। अर्जुनराम मेघवाल, गजेंद्र सिंह शेखावत जैसे नेता भी वहां मौजूद हैं। हो सकता है कि ये नेता भी चुनाव लड़ें। हमें भाजपा की दूसरी सूची का इंतजार करना होगा क्योंकि मध्यप्रदेश में भी चौथी सूची में जाकर सीएम शिवराज सिंह चौहान का नाम आया है। वसुंधरा को इतनी जल्दी खारिज नहीं किया जा सकता है।
मध्यप्रदेश में अक्तूबर के पहले हफ्ते में इंडिया गठबंधन की रैली होने वाली थी। अब कुछ तय नहीं है। विपक्षी एकता का क्या होगा?
प्रेम कुमार
यह माना जाता रहा है कि कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर है। मध्यप्रदेश में कमलनाथ, राजस्थान में गहलोत और छत्तीसगढ़ में बघेल जो चाहते हैं, वही होता है। भाजपा में दूसरी धारणा है कि वहां आलाकमान ही सबकुछ है। हालांकि, कांग्रेस ने अशोक गहलोत और सचिन पायलट को एकसाथ बैठा दिया। वहीं, भाजपा में दृश्य अब वसुंधरा बनाम आलाकमान और शिवराज बनाम आलाकमान हो गया है। भाजपा में तो ऊपर से नीचे तक कार्यकर्ता असमंजस में हैं। राजस्थान में वसुंधरा के सामने दीया कुमारी को मैदान में उतार दिया गया है।
पूर्णिमा त्रिपाठी
विधानसभा चुनाव तो इंडिया गठबंधन की प्राथमिकता की सूची में है ही नहीं। उनका लक्ष्य 2024 के लोकसभा चुनाव हैं। आम आदमी पार्टी की बात हो रही है, लेकिन वह मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में तो ‘आप’ ज्यादा मजबूत ही नहीं है।
समीर चौगांवकर
आम आदमी पार्टी के पास मध्यप्रदेश में 40 पार्षद हैं, तो दौड़ में तो वह भी है।
क्या भाजपा ने जल्दी उम्मीदवार घोषित कर बढ़त बना ली है?
विनोद अग्निहोत्री
श्राद्ध, मुहूर्त, खरमास जैसी बातें भाजपा में पहले होती थीं। कांग्रेस इस सबके बारे में नहीं सोचती थी। अब कमलनाथ जिस तरह से मध्यप्रदेश में कांग्रेस को चला रहे हैं, वे घोषणा कर देते हैं कि पितृपक्ष में फैसला नहीं करेंगे। तो इस बार परिदृश्य बदला दिख रहा है। कमलनाथ का जो हिंदूवाद है, ऐसे में अगर स्टालिन आते या नहीं आते और इंडिया गठबंधन की रैली होती तो मुद्दे कुछ और हो जाते। दूसरी तरफ, आम आदमी पार्टी अपना रुख साफ कर चुकी है कि हमारा गठबंधन लोकसभा चुनाव के लिए है, राज्यों के चुनाव के लिए नहीं। आम आदमी पार्टी दोधारी तलवार है। वह जिस पार्टी के बागी को टिकट देगी, उसके वोट काटेगी। जल्दी या देर से टिकट घोषित करने के अपने-अपने फायदे-नुकसान हैं। कांग्रेस की चुनौती उसकी सूची आने के बाद शुरू होगी।
समीर चौगांवकर
छत्तीसगढ़ की बात करें तो भाजपा वहां अब यह चाहती है कि वह कम से कम करीबी मुकाबले में रहे। 2018 जैसी बुरी हार न हो। मध्यप्रदेश में भी भाजपा ने सांसदों को उतारकर यह प्रयोग किया है। भाजपा सत्ता चाहती है और इसके लिए प्रयोग करती है। हो सकता है कि पार्टी कुछ नेताओं को लोकसभा चुनाव नहीं लड़वाना चाहती, इसलिए उन्हें विधानसभा चुनाव में उतार दिया।
राजस्थान में राहुल गांधी अभी मध्यप्रदेश जितने सक्रिय नजर नहीं आ रहे। क्या वहां कुछ खींचतान है? तेलंगाना में क्या हालात हैं? सचिन पायलट की क्या भूमिका नजर आती है?
पूर्णिमा त्रिपाठी
जब कांग्रेस में संगठन के चुनाव की बात थी तो अशोक गहलोत पार्टी अध्यक्ष बनने के इच्छुक नहीं थे। ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी ने अशोक गहलोत को अपने हाल पर छोड़ दिया है। तेलंगाना में केसीआर और भाजपा के बीच समझौता नहीं हो सकता क्योंकि प्रधानमंत्री तो परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ बात करते हैं।
विनोद अग्निहोत्री
चुनाव तो मिजोरम और तेलंगाना में भी दिलचस्प होने हैं। तेलंगाना की सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ भाजपा ने तेवर अपने नर्म किए हैं। वहां अब मुकाबला बीआरएस बनाम कांग्रेस हो गया है। भाजपा ने तो देवेगौड़ा की पार्टी से भी समझौता कर लिया। उनकी पार्टी भी परिवार की पार्टी है। जहां तक राजस्थान की बात है तो राहुल गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में अशोक गहलोत उनके साथ नजर आए थे। कांग्रेस को मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीत की उम्मीद ज्यादा है। इसलिए राहुल और प्रियंका गांधी की दिलचस्पी इन दो राज्यों में ज्यादा है। राजस्थान में कांग्रेस का भला-बुरा अशोक गहलोत के जिम्मे है।
राहुल महाजन
सचिन पायलट की भूमिका क्या होगी, यह सवाल तब आएगा, जब कांग्रेस राजस्थान में चुनाव जीत जाए। कांग्रेस आलाकमान अभी चाहता है कि गहलोत अपने दम पर चुनाव जीतकर दिखाएं। सचिन पायलट ने भी कुछ मुद्दे उठाए। कांग्रेस नहीं चाहेगी कि वे मुद्दे उभरकर आएं। तेलंगाना में बीआरएस में एआईएमआईएम का दबे-छुपे गठबंधन नजर आता है। वहां त्रिकोणीय मुकाबला दिखाई दे रहा है।