प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय देश की सबसे लोकप्रिय राजनीतिक शख्सियत हैं। लोकसभा चुनावों में विधानसभा चुनाव की तुलना में भाजपा के मत प्रतिशत में बढ़ोतरी इस बात का प्रमाण है कि जब देश का प्रधानमंत्री चुनने की बात आती है, जनता खूब बढ़चढ़कर भाजपा को वोट देती है। लेकिन जैसे ही विधानसभा चुनावों की बात आती है, मोदी का करिश्मा भी भाजपा की एक सीमा से ज्यादा मदद नहीं कर पाता। इसके बाद भी भाजपा ने छत्तीसगढ़-राजस्थान के विधानसभा चुनावों में बिना चेहरे के उतरने का निर्णय किया है। बड़ा प्रश्न है कि क्या स्थानीय चेहरों के बिना प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा कितना कारगर साबित होगा?
इसी साल मई महीने में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव हुए थे। पार्टी ने मजबूत छवि वाले बीएस येदियुरप्पा को किनारे लगा दिया था। मोदी ने चुनाव में जमकर प्रचार किया। उनके लंबे रोड शो में लोगों की खूब भीड़ उमड़ी। लेकिन इसके बाद भी भाजपा जीत हासिल नहीं कर सकी। इसके पहले हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ था।
विधानसभा चुनावों के मामले में गुजरात में मोदी का जादू जमकर चलता है। उनका अपना गृह राज्य होने के कारण जनता उन्हें जमकर समर्थन करती है। लेकिन जैसे ही वे गुजरात से बाहर निकलते हैं, विधानसभा चुनावों में उनकी जीत का प्रतिशत कम होता जाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हुए हरियाणा और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में उन्हीं के नाम पर वोट पड़े थे, लेकिन यही जादू दिल्ली या बिहार में नहीं चला था जहां स्थानीय मजबूत नेताओं ने मोदी ब्रांड की सीमाएं बता दी थीं।
इसके बाद पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना-तमिलनाडु जैसे राज्यों के चुनावों ने भी यह साबित कर दिया कि भाजपा जीत तभी अच्छी जीत हासिल करती है जब उसे स्थानीय नेतृत्व के साथ-साथ ब्रांड मोदी का साथ मिलता है। अकेले दम पर ब्रांड मोदी दूसरे राज्यों में बहुत कारगर साबित नहीं हो रहा है।
लेकिन फिर भी चला वही दांव
राजनीतिक विश्लेषक संजय तिवारी ने ‘अमर उजाला’ से कहा कि भाजपा के चतुर रणनीतिकार इस तथ्य को अच्छी तरह समझते होंगे, लेकिन इसके बाद भी छत्तीसगढ़-राजस्थान में बिना चेहरे के चुनाव में उतरना चौंकाने वाला निर्णय है। छत्तीसगढ़ में पार्टी के पास कोई चेहरा नहीं है। वह बिना किसी नेता को चेहरा घोषित किये चुनाव में उतरने जा रही है तो राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया जैसी मजबूत नेता के होने के बाद भी अज्ञात कारणों से उन्हें आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है। इससे पार्टी को नुकसान हो सकता है।
छत्तीसगढ़ में क्या रणनीति
पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि पर राज्य में वोट मांगेगी। इसके लिए केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के जरिए जनता में वोट मांगे जाएंगे। आदिवासी समुदाय के लिए किए गए केंद्र सरकार के काम पार्टी की चुनावी रणनीति के केंद्र में होंगे। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने को आदिवासी समुदाय का गौरव बताकर पार्टी आदिवासी समुदाय का समर्थन हासिल करने का प्रयास करेगी।
लोकसभा नहीं, विधानसभा है असली चुनौती
छत्तीसगढ़ भाजपा के एक नेता ने ‘अमर उजाला’ को बताया कि पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव जीतना बड़ा मामला नहीं है। पीएम की छवि के कारण राज्य की जनता खुलकर भाजपा का साथ देती है। 2014 में भाजपा 11 में से 10 सीटें और 2019 में नौ सीटें जीतने में कामयाब रही थी। इस दौरान उसका वोट प्रतिशत भी 50 से अधिक रहा है। यानी लोकसभा में वह राज्य में लगभग अपराजेय वाली स्थिति में है।
लेकिन भाजपा की असली परेशानी विधानसभा चुनाव हैं। पार्टी के पास विधानसभा में कोई बड़ा चेहरा नहीं है जिसके बल पर वह जीत हासिल कर सके। रमन सिंह पुराने नेताओं की श्रेणी में गिने जाते हैं और अब उनके नाम पर चुनाव में जीत हासिल करना संभव नहीं है। पार्टी ने इस बीच राज्य में किसी नए चेहरे को नेता के रूप में उभारने की कोशिश भी नहीं की है जो उसके लिए नकारात्मक कदम साबित हो रहा है।
कड़ी चुनौती
भाजपा की रणनीति के सामने भूपेश बघेल सरकार ने छत्तीसगढ़ में भाजपा के सामने कड़ी चुनौती पेश की है। पार्टी ने नई-नई योजनाओं के सहारे आधार वोट बढ़ाने का काम किया है। चुनाव के समय पार्टी विभिन्न वर्गों के लिए नए पिटारे खोलने की रणनीति भी अपना सकती है जो उसका आधार वोट बैंक मजबूत करने का काम करेगी। कांग्रेस ने राज्य के नेताओं की आपसी गुटबाजी को संभालते हुए पूरे दमखम के साथ चुनाव में उतरने का निर्णय लिया है। जिस प्रकार टीएस सिंह देव ने मुख्यमंत्री के खिलाफ अपनी तलवार म्यान में डाल ली है, उससे भी कांग्रेस रणनीतिक रूप से भाजपा से आगे दिखाई पड़ रही है। पहली नजर में यही दिखाई पड़ रहा है कि कांग्रेस यहां पर बढ़त बनाए हुए है।
राजस्थान में पार्टी की नीति साफ नहीं
राजस्थान में भाजपा का चुनावी अभियान अभी तक जमीन पर जोर नहीं पकड़ सका है। सतीश पूनिया ने राज्य के अध्यक्ष रहते हुए धरना, विरोध प्रदर्शनों और गहलोत सरकार पर राजनीतिक हमलों की झड़ी लगा दी थी, लेकिन उनके जाते ही पार्टी के अभियान शिथिल पड़ चुके हैं। राज्य के नेता भी मानते हैं कि पार्टी यहां सत्ता में वापसी कर सकती है, लेकिन इसके लिए सभी को एकजुट होकर जोर लगाना होगा। लेकिन सच्चाई यह है कि केंद्र की कठोर टिप्पणी के बाद भी अभी तक राज्य के नेताओं को एकजुट करना संभव नहीं हुआ है।
वहीं, अशोक गहलोत सरकार ने नई-नई योजनाओं के जरिए लोगों को अपने से जोड़ने का काम जारी रखा है। पार्टी नेता एकजुट हैं। पार्टी कई चुनावी वादों के साथ जमीन पर उतरकर भाजपा की राह कठिन कर सकती है। इसके बाद भी भाजपा की रणनीतिक कमजोरी उस पर भारी पड़ सकती है।