अगली सुनवाई अगले सोमवार को होगी।
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हाईकोर्ट ने यौन उत्पीड़न मामले में आपराधिक कार्यवाही से बचने के लिए पीड़िता से शादी करने के चलन पर गहरी चिंता जताई है। अदालत ने कहा कि ये देखा गया है कि मामला रद्द होने या जमानत मिलने के बाद आरोपी तुरंत पीड़िता को छोड़ देता है। अदालत ने उक्त टिप्पणी करते हुए दुष्कर्म के आरोपी के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी रद्द करने से इन्कार कर दिया।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने भारतीय दंड संहिता के साथ-साथ यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (पोक्सो) की धारा 6 के तहत दुष्कर्म और अन्य अपराधों के लिए 2021 में दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज की गई एफआईआर को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि चौंकाने वाली बात यह है कि ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहां आरोपी धोखे से इच्छा की आड़ में शादी कर लेता है, खासकर जब पीड़िता गर्भवती हो जाती है और बाद में डीएनए परीक्षण से आरोपी के जैविक पिता होने की पुष्टि होती है। विवाह संपन्न होने और बाद में आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट मिलने के बाद आरोपी कुछ ही महीनों के भीतर पीड़िता को बेरहमी से छोड़ देता है। न्यायालय ने कहा कि इस मामले में सामाजिक दबाव के कारण उत्तरजीवी और आरोपी की शादी हो सकती है।
अदालत ने कहा भारत सहित कई समाजों में मौजूद सामाजिक दबाव के कारण क्योंकि पीड़िता गर्भवती हो गई थी इसलिए पीड़िता की मां ने आरोपी के दबाव में आकर अपनी बेटी की शादी उससे करा दी, क्योंकि वह बच्चे का जैविक पिता था। वर्तमान मामले में यह आरोप शामिल है कि 20 वर्षीय आरोपी ने 17 वर्षीय लड़की के साथ दुष्कर्म किया था, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने बाद में उसके गर्भवती होने के बाद शादी कर ली थी। बताया जाता है कि दोनों की मुलाकात ट्यूशन क्लास में हुई थी। लड़की ने दावा किया कि आरोपी ने उसे शराब दी और एक गेस्ट हाउस में उसके साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाए।
सहायक मानकर पत्नी की स्वायत्तता कम करना अभिशाप : उच्च न्यायालय
एक अन्य मामल में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि आज के युग में एक महिला को केवल पति के सहायक के रूप में मानकर उसकी स्वायत्त स्थिति को कम करना अभिशाप है। खासकर उस संबंध में जिसे कानून उसकी पूर्ण संपत्ति मानता है। न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी ने एक पत्नी द्वारा दिए गए आवेदन को स्वीकार कर लिया, जिसमें उसे और उसके पति को किसी भी तीसरे पक्ष के अधिकार बनाने से रोकने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा के आदेश की याचिका को खारिज करने की मांग की गई थी। वादी का मामला यह था कि विचाराधीन संपत्ति उस साझेदारी फर्म से संबंधित एक साझेदारी संपत्ति थी जिसमें वे भागीदार थे। उन्होंने दावा किया कि यह उनके और जोड़े के बीच एक संयुक्त संपत्ति थी जिसमें दोनों पक्षों की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी थी।
वादी द्वारा यह भी दावा किया गया कि उनकी साझेदारी फर्म के धन का उपयोग संपत्ति खरीदने के लिए किया गया था क्योंकि महिला की अपनी कोई आय नहीं थी। संपत्ति महिला के नाम पर साझेदारी फर्म के पूर्व मालिकों से खरीदी गई थी और उनके पास केवल एक प्रत्ययी क्षमता में थी क्योंकि उसका पति फर्म का भागीदार था। याचिका को खारिज करते हुए न्यायमूर्ति भंभानी ने कहा कि विषय संपत्ति महिला के एकमात्र नाम पर उसकी पूर्ण संपत्ति के रूप में है। अदालत ने कहा कि वाद में ऐसा कोई दावा नहीं किया गया है कि बिक्री पत्र में यह कहते हुए कोई प्रतिबंध लगाया गया है कि संपत्ति पर महिला एकमात्र और पूर्ण मालिक के रूप में नहीं रहेगी।
अदालत ने कहा इसलिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14 के स्पष्ट आदेश के मद्देनजर, कानून के एक मामले के रूप में प्रतिवादी विषय संपत्ति को पूर्ण मालिक के रूप में रखता है, न कि सीमित मालिक के रूप में और वादपत्र में कोई भी दावा इससे अलग नहीं होता है।