Delhi Bill: ‘सोचता हूं कि वो कितने मासूम..’ से ‘कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी..’ तक, राज्यसभा में शायराना बहस

Delhi Bill: ‘सोचता हूं कि वो कितने मासूम..’ से ‘कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी..’ तक, राज्यसभा में शायराना बहस


अभिषेक मनु सिंघवी
बहस की शुरूआत करते हुए कांग्रेस सांसद ने दिल्ली सेवा विधेयक का विरोध किया। इस दौरान उन्होंने शायर मुजफ्फर इस्लाम रजमी की मशहूर पंक्तियां पढ़ीं-

‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने, लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।’

इसके बाद सिंघवी ने बिल का समर्थन करने वाले दलों खासकर बीजद और वाईएसआर कांग्रेस की ओर इशारा किया और जर्मन पादरी मार्टिन नीमोलर की विख्यात कवित पढ़ी।

‘पहले वे समाजवादियों के लिए आए, और मैंने कुछ नहीं बोला-

      क्योंकि मैं समाजवादी नहीं था।

फिर वे ट्रेड यूनियनवादियों के लिए आए, और मैंने कुछ नहीं बोला-

      क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनिस्ट नहीं था।

तब वे यहूदियों के लिये आये, और मैं ने कुछ न कहा।

      क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।

फिर वे मेरे लिए आए और मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं बचा था।’

बिल के कथित दुष्प्रभावों पर बात करते हुए कांग्रेस नेता ने शायर तरन्नुम कानपुरी की लाइनें पढ़ीं।

‘ऐ काफिले वालों, तुम इतना भी नहीं समझे 

लूटा तुम्हें रहजन ने, रहबर के इशारे पर।’

केंद्र सरकार की ओर इशारा करते हुए सिंघवी ने कहा कि सत्ता में आज कोई और है कल कोई और होगा। इस दौरान उन्होंने हबीब जालिब का मशहूर शेर पढ़ा।

‘तुम से पहले वो जो इक शख्स यहां तख्त-नशीं था 

उस को भी अपने खुदा होने पे इतना ही यकीं था।’

आगे उन्होंने बशीर बद्र की लाइनें दोहराईं

‘शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है 

जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है।’

राज्यसभा सांसद ने विधेयक को संविधान के खिलाफ बताते हुए परवीन शाकिर का शेर पढ़ा।

‘ऐ मिरी गुल-जमीं तुझे चाह थी इक किताब की 

अहल-ए-किताब ने मगर क्या तिरा हाल कर दिया।’ 

सिंघवी ने अपने संबोधन का अंत मलिकजादा मंजूर अहमद की गजल से की।

‘चेहरे पे सारे शहर के गर्द-ए-मलाल है 

जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है।’



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