Khabron Ke Khiladi: खबरों के खिलाड़ी की नई कड़ी में एक बार फिर आपका स्वागत है। बीते हफ्ते की प्रमुख खबरों के विश्लेषण के साथ हम आपके सामने प्रस्तुत हैं। यह चुनावी चर्चा अमर उजाला के यूट्यूब चैनल पर लाइव हो गई है। इसे रविवार सुबह नौ बजे फिर से लाइव देखा जा सकता है।
यह चुनावी चर्चा विशेष है क्योंकि आज हम समान नागरिक संहिता पर बात करेंगे। आजादी के इतने सालों बाद भी इस पर एकराय क्यों नहीं बन पाई है। लोकसभा चुनाव से 10 महीने पहले यूसीसी (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का मुद्दा उठाया जा रहा है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या चुनावी फायदे के लिए इस पर चर्चा हो रही है या सरकार वाकई इसे लेकर गंभीर है….। इसी अहम मुद्दे पर चर्चा के लिए इस बार हमारे साथ वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक विनोद अग्निहोत्री, सुमित अवस्थी, अवधेश कुमार, डॉ. शम्स उल हसन, अंबर जैदी और विकास गुप्ता मौजूद रहे।
सुमित अवस्थी
‘देश में समान नागरिक संहिता या यूसीसी बहुत विवादित विषय है। भाजपा देश में यूसीसी लागू करना चाहती है लेकिन वाजपेयी सरकार में इस मुद्दे को टाल दिया गया था क्योंकि तब कई सहयोगी पार्टियां इसके खिलाफ थीं। आज भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में है, ऐसे में इन हालात में क्या सरकार यूसीसी के मुद्दे पर आगे बढ़ेगी या सिर्फ ये चुनावी शिगूफा बनकर तो नहीं रह जाएगा, इस पर सभी की नजरें हैं। यूसीसी की चर्चा के बीच कई अहम सवाल उठ रहे हैं, जिनमें पूछा जा रहा है कि देश में इसे लागू करना क्यों जरूरी है? क्या देश को इसकी जरूरत है और अगर आजादी के 75 साल बाद भी यह लागू नहीं हो पाया है तो कब लागू होगा?’
‘हमारा देश, जो इतनी विविधताओं से भरा है, जहां अलग-अलग समुदायों की अपनी विशिष्ट पहचान है, वहां क्या यूसीसी को लागू किया जा सकता है? कुछ महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में चुनाव के वक्त यूसीसी का मुद्दा क्या चुनावी फायदे के लिए थोपा जा रहा है। बेहतर होता कि बुद्धिजीवियों और कुछ प्रतिनिधियों की बजाय समाज के बीच इस मुद्दे पर बहस होती।’
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अंबर जैदी
‘संविधान का मतलब है सभी को एक समान कानून। आज की मौजूदा स्थिति यह है देश में धर्म के आधार पर पर्सनल लॉ हैं, जो संविधान की भावना के खिलाफ हैं। कोर्ट भी समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कह चुका है, लेकिन विरोध के चलते ऐसा नहीं हो सका। पर्सनल लॉ के आधार पर किस तरह महिलाओं से भेदभाव किया जाता है, उसे समझने के लिए शाहबानो केस हमारे सामने है। यूसीसी को लेकर जारी बहस में देश की विविधताओं को सुरक्षित करने की बात तो हो रही है, लेकिन महिलाओं की बात कोई भी नहीं कर रहा। महिलाओं को सशक्त करने के लिए भी समान नागरिक संहिता लागू करना जरूरी है। जब महिला को तीन तलाक देकर घर से निकाला जाता है तो इस्लाम खतरे में आ जाता है, लेकिन आपराधिक मामलों में, जहां सभी के लिए समान कानून है, वहां ऐसा कोई सवाल नहीं उठता!’
डॉ. शम्स उल हसन
‘हमारे देश की हालत ऐसी है कि हमें इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या हमारे पास बच गया है ना कि इस पर कि क्या लेना है। जब देश के एक हिस्से मणिपुर में आग लगी हुई है और आम जनता महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रही है तो ऐसे वक्त में यूसीसी का मुद्दा उठाना गलत है। हम शिया समुदाय से हैं और हमारे यहां से भाजपा को समर्थन मिलता रहा है। हम भी यूसीसी के हक में हैं, लेकिन लागू करने से पहले इस पर समाज के विभिन्न तबकों में विस्तार से बहस होनी चाहिए। हमें जोश से नहीं, होश से काम लेना चाहिए। जब शिया-सुन्नी विवाद हुआ तो भाजपा ने हमारा साथ दिया। तो हम दिल से भाजपा के साथ हैं, लेकिन अभी यूसीसी लागू करने के लिए वक्त सही नहीं है। मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है, लेकिन उसमें भी बंटवारा है। शिया पर्सनल लॉ बोर्ड में महिलाओं की पूरी सुनी जाती है और उन्हें अधिकार मिले हुए हैं, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड आज सिर्फ सुन्नियों का बोर्ड बनकर रह गया है।’
विकास गुप्ता
‘तीन मुद्दे ऐसे रहे जो 1947 से आज तक चर्चा में रहे और काफी अहम हैं, इनमें से एक राम मंदिर का मुद्दा है, जहां कोर्ट से फैसला हुआ, दूसरा मामला जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और तीसरा समान नागरिक संहिता लागू करने का है। देश का सेक्युलर चेहरा बनाए रखना है तो समान नागरिक संहिता लागू करनी होगी। किसी भी देश के लिए 75 साल का समय काफी होता है किसी मुद्दे पर राय बनाने के लिए। देश इतना परिपक्व हो चुका है कि समान नागरिक संहिता लागू करने का फैसला किया जा सके। गोवा में समान नागरिक संहिता पहले से लागू है। हालांकि हमें देश में आदिवासियों और उनकी संस्कृति को संरक्षित करने की जरूरत है। पर्सनल लॉ कोडिफाईड होता है। जहां जहां कुरीतियां थीं, वहां संसद और कोर्ट द्वारा कानूनों में सुधार हुए। जितने भी पर्सनल लॉ बने हैं, वे महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। भारत पुरुष प्रधान समाज है, ऐसे में यह सिर्फ पर्सनल लॉ बोर्ड का मामला नहीं है, बल्कि यह पुरुष प्रधान समाज के लिए भी चुनौती हो सकता है।’
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अवधेश कुमार
‘संविधान में कई ऐसे प्रावधान थे, जिन्हें हटाया जाना था, खुद अंबेडकर ने इन्हें अल्पकालिक बताया था। कानून अलग-अलग होने से देश का सद्भाव बिगड़ता है। भाजपा कुछ भी करती है तो उसमें हमेशा मुस्लिम एंगल ढूंढा जाता है। ऐसा कहा जा रहा है कि चुनाव के समय समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठाया जा रहा है, लेकिन बता दें कि विधि आयोग ने 2016 में भी समान नागरिक संहिता पर सुझाव मांगे थे। देश की आजादी के बाद पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने खुलकर समान नागरिक संहिता की बात की है। देश के हित में काम करने वाली राजनीतिक पार्टी का समर्थन किया जाएगा, चाहे कोई भी पार्टी हो। मोदी सरकार की कितनी भी आलोचना की जाए, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह अपने द्वारा उठाए गए मुद्दों पर पीछे नहीं हटी है। जल्द ही संसद में यूसीसी के मुद्दे पर बहस शुरू हो सकती है। वामपंथी पार्टियां भी समान नागरिक संहिता के समर्थन में हैं। ऐसे में राजनीतिक पार्टियों को अपने मतभेद भुलाकर देश के लिए इस कानून का समर्थन करना चाहिए।’
विनोद अग्निहोत्री
‘क्रिमिनल लॉ और सिविल लॉ अलग-अलग हैं। जब कॉमन सिविल कोड की बात होगी तो उसमें सभी समुदाय और धर्म आएंगे। जब समान नागरिक संहिता की बात होगी तो ये बात भी उठेगी कि जब आदिवासियों को संरक्षित किया जा रहा है तो बाकियों पर समान नागरिक संहिता लागू क्यों की जा रही है? यह स्पष्ट होना चाहिए कि समान नागरिक संहिता में किन प्रावधानों को शामिल किया जाएगा। क्या उसमें हिंदू कोड बिल के प्रावधानों की ही अधिकता होगी या फिर उसमें शरीयत के भी प्रावधानों को शामिल किया जाएगा। इस मुद्दे पर समाज के भीतर चर्चा की जरूरत है। पहले जो सरकारें आईं, उनके लिए ये मुद्दा नहीं था, अब सरकार इसे लागू करना चाहती है तो इस पर चर्चा चलनी चाहिए।’
‘किसी भी संप्रदाय का कोई एक प्रतिनिधि नहीं है। उसी तरह ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, मुस्लिमों का प्रतिनिधि नहीं है। महिलाओं के एंगल से जरूर सोचा जाना चाहिए। जो शरिया कानून है, उसमें महिलाओं की स्थिति क्या है, उस पर विचार किया जाना चाहिए। शरिया कानूनी तौर पर कोडिफाईड है, ऐसे में आम मुसलमान को डर लगता है कि अगर वह शरिया का विरोध करेगा तो यह धर्म के विरुद्ध होगा। वहीं हिंदुओं में ऐसा नहीं है, हिंदुओं में प्रथाएं हैं, मान्यताएं हैं, लेकिन ये कानून नहीं हैं। आम लोगों में इसे लेकर समझ पैदा करने की जरूरत है। समाज में जो मान्यताएं हैं, उन्हें दूर करने में समय लगता है। समान नागरिक संहिता पूरे देश का मसला है और इससे तमाम हिस्सेदार जुड़े हैं, इसलिए पूरी ईमानदारी से इस पर चर्चा होनी चाहिए।’