Ajit Pawar
– फोटो : Amar Ujala
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राजनीतिक महत्वकांक्षाएं सदा अपने शीर्ष की तलाश में होती हैं। राजनेताओं की इच्छाओं का आकाश अनंत होता है। नेता महत्व की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विस्तार की बाट जोहते हैं, लेकिन वे दरअसल शिकार पर निकलते हैं। त्रासदी यही होती है कि कई बार वे शिकार स्वयं होते हैं तो बाजदफा वे लोग होते हैं जो कभी उनके साथ शिकारी की भूमिका निभा रहे होते हैं।
बीते चार सालों में देश की सियासत का हॉट पॉइंट रहा महाराष्ट्र निजी इच्छाओं और महत्वकांक्षाओं की प्रयोगशाला बना हुआ है। कभी कुर्सी के मोह में नहीं फंसने वाले राज्य के कद्दावर नेता शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे की जीवन के उत्तरार्ध में सीएम बनने की आकांक्षा 40 साल पुरानी शिवसेना को कितनी भारी पड़ी और एकनाथ शिंदे जैसे शिवसैनिक की महत्वकांक्षा खुद उद्धव ठाकरे के लिए इतना बड़ा झटका थी, इस कथा को किसी को बताने की जरूरत नहीं है।
और फिलहाल इस कथा में पवार परिवार का भी एक किस्सा दर्ज हुआ है जहां महाराष्ट्र की सीएम की कुर्सी का सपना देख रहे अजित पवार कभी अपने चाचा की महत्वकांक्षा का शिकार थे लेकिन आज वे एक उम्दा शिकारी हैं और शरद पवार एक दौर की उलटबासी हैं जिसके कभी वे हिस्सेदार रहे।
बाहरहाल, चार साल में तीन बार डिप्टी सीएम बने अजित पवार उन उद्धव ठाकरे की तुलना में तेज-तर्रार नेता माने जाते हैं जिनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के असली शिकारी कभी राज ठाकरे हुआ करते थे लेकिन पिता ने अपने बेटे की महत्वकांक्षाओं को बचाने के चक्कर में उस भतीजे की इच्छाओं का शिकार कर लिया था जिसने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना लेकर शिवसेना को दो फाड़ कर दिया था।
फिलहाल यहां बात अजित पवार और उद्धव ठाकरे की तुलना की नहीं है जो कि अजित वैसे ही हैं और जिन्होंने अपनी भतीजी के गढ़ में 2019 की बारामती विधानसभा को डेढ़ लाख से ज्यादा वोटों से फतेह कर लिया था बल्कि बात उन शरद पवार की है जो पुत्री मोह में अपने विराट सियासी करियर के नीचे अजित जैसे जानें कितने कद्दावर नेताओं को फूल-पत्तियां और झाड़ी बनाकर समेट रहे थे।
दरअसल, महाराष्ट्र में क्षेत्रिय पार्टियों के बीच कलह और नेताओं की महत्वकांक्षाओं के लगातार फैलते आकाश के बीच सवाल यह उठता है कि आखिर राजनैतिक मंशाएं, दुरभिसंधियां और सत्तालोलुपता का आखिरी छोर बैठेगा कहां? साल 2019 में देवेंद्र फडनणीस ने जिस अजित पवार की राजनीतिक महत्वकांक्षाओं की लालसा को कैश कराकर एक रात में सत्ता पलटकर 80 घंटे की सरकार चलाई और अजित को असफल मंशाओं के साथ दोबारा छोड़ दिया जबकि आज फिर से वे ही फडणवीस उसी रूप में लौटे हैं और सफल हुए हैं तो यक्ष प्रश्न यही है कि चैट जीपीटी की फास्ट मूविंग होने जा रही दुनिया में क्या लोकतंत्र ऐसे औचक तरीकों से सरकारें ही बदल दिया करेगा?
नैतिकता कसौटी हो लेकिन धोखाधड़ी, षडयंत्र और हितों को साधने के लिए रसातल में पहुंच का खेल गर ग्लैमर, रोमांच और पॉलिटिक्स का रोमांटिज्म बन गया तो आने वाला वक्त और एक दौर की सियासी पीढ़ी राजनीति की कौन सी इबारत लिखेगी इसका अंदाजा मुश्किल होगा।
ऑपरेशन लोटस जिस फक्र से कहा जा रहा है वो आखिर किस परिपाटी को चला रहा है? आखिर उसका भविष्य क्या होगा? सियासत में गर भरोसा वर्चुअल ही बना रह गया और जोड़-तोड़ की इस सियासत ने जगह बना ली जिसे शुरू करने वाली कांग्रेस पार्टी थी तो भला इस गेम में जानें कितने अजित पवार हैं जो किन्हीं शरद पवार जैसे बरगद के नीचे पुत्री मोह में उनका हक मारे जा रहे हैं और जानें कितने राज ठाकरे हैं जिनके चलते जनता ठगी की ठगी रह गई है।
महाराष्ट्र में 2019 से 2023 तक चली आ रही सियासत की महत्वकांक्षा के आकाश का क्षितिज आखिर होगा कहां?
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा का अजित पवार को साधना महाराष्ट्र में वोटों के उस जातीय और भौगोलिक समीकरण को साधना है जिसे उन्हीं के क्षत्रपों के मार्फत साधा जा सकता था। एक तरह से यह वही गणना है जो कभी महत्वकांक्षाओं से भरे नेताओं को तलाशकर कांग्रेस राज करने की मैनेजर नीति के तहत किया करती थी और जिसके बूते अर्जुन सिंह, श्यामा चरण, विद्याचरण शुक्ल, नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता अपने-अपने गढ़ संभाला करते थे और केवल रिपोर्ट दिया करते थे।
सवाल यह भी उठता है कि भाजपा में रणनीति के ये सूत्रधार आखिर गद्दी पर कितने दिन बैठ पाएंगे? अहं का टकराव, नीतियों में बदलाव, वोटों को साधना, जातिगत् बिगड़ते समीकरण और हितों के विरोधाभास के बीच महात्वकांक्षाओं को कैश कराकर क्षेत्रीय क्षत्रपों को तोड़ने की बिसात कहीं भाजपा का अपना विखंडना ना करा दे। हालांकि काडरबेस पार्टी की सरंचना भाजपा को देश की तमाम, दूसरी पार्टियों (लेफ्ट पार्टियों को छोड़ दिया जाए तो) मजबूत बनाती है लेकिन राम मंदिर, धारा 370 और अब यूसीसी जैसे प्रमुख एजेंडों को पूरा करने के बाद भाजपा के पास आखिर ऐसा कौन सा एकमत रेखीय समीकरण होगा जिसके बूते वह महत्वकांक्षाओं को साधेगी।
जाहिर है राजनीति में हर कार्यकर्ता नेता होना चाहता है और हर नेता, विधायक व सांसद जबकि मंत्री बनने का ख्वाब लिए तो कार्यकर्ता सियासी दल जॉइन करते हैं।
सवाल यह उठता है कि उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे और अजित पवार किन-किन दलों में है और आने वाले समय में आखिर उनकी महत्वकांक्षाओं का आकाश आखिर किस छोर पर क्षितिज बनेगा?
क्या भाजपा में महत्वकांक्षाओं का एक आकाश फैलने को आतुर नहीं होगा?