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विपक्षी एकता की राह में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और पंजाब अहम हैं, जहां 142 सीटें हैं। गेंद अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के पाले में है।
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पटना घोषणा के बाद शिमला समझौते की तैयारी है। कहा जा रहा है कि विपक्ष को जीत का फॉर्मूला मिल गया है। भाजपा के खिलाफ करीब 400 सीटों पर विपक्ष का एक ही उम्मीदवार होगा। इसकी घोषणा 12 जुलाई की शिमला बैठक में हो सकती है। कुल मिलाकर राज्यों की तीन श्रेणियां बनाई जा रही हैं। इन सब के बावजूद विपक्ष में राहुल गांधी को छोड़कर कोई भी अन्य नेता आत्मविश्वास के साथ कहने की हालत में नहीं है कि 2024 में विपक्ष सत्ता में आ जाएगा। तीन सवाल हैं। एक, भाजपा के खिलाफ चार सौ सीटों पर एक ही उम्मीदवार रहा, तो क्या मोदी की हार संभव है? दो, गठबंधन कागजों पर है या जमीन पर भी उतरा है? तीन, सबसे बड़ी पार्टी अगर भाजपा रही, तो विपक्ष कैसे सरकार बना पाएगा?
पहले बात करते हैं, वन टू वन की। पिछले लोकसभा चुनावों के आंकड़ों के संदर्भ में बात की जाए, तो विपक्ष की रणनीति बहुत प्रभावी तो लगती है, लेकिन निर्णायक नहीं। भाजपा ने 46 सीटों पर चार लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से विजय हासिल की थी। उधर विपक्ष ने 23 सीटों पर चार लाख से ज्यादा वोट हासिल किए थे। इनमें से कुछ पर विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ जीते थे, तो कुछ में कांग्रेस के खिलाफ, तो कुछ में विपक्ष बनाम विपक्ष के बीच मुकाबला रहा था। जाहिर है कि कुल मिलाकर ऐसी 69 सीटों का गणित बहुत कुछ बदलने वाला नहीं है। भाजपा ने 105 सीटों पर तीन लाख के ज्यादा अंतर से जीत हासिल की थी। इनमें से आधे में उसका मुकाबला कांग्रेस से हुआ था। ऐसी सीटों की कुल संख्या 131 रही थी। भाजपा को 2014 में 31 फीसदी और 2019 में 37 फीसदी वोट मिले थे और 2024 में 39 फीसदी वोट मिलने का अनुमान लगाया गया है, तो संयुक्त विपक्ष इन सीटों में सेंधमारी तो जरूर कर सकता है, लेकिन तीन लाख वोटों की दीवार गिरा नहीं सकता।
विपक्ष की नजर ऐसे में उन सीटों पर होनी चाहिए, जहां भाजपा ने दो लाख के अंतर से सीटें जीती थीं। 2019 में ऐसी सीटों की संख्या कुल मिलाकर 236 थी और इसमें से भाजपा ने 164 सीटें जीती थी। यहां भी दिलचस्प आंकड़ा है कि इनमें से भाजपा ने 55 सीटें कांग्रेस के खिलाफ जीती थीं। तो कहानी आकर अटकती है, ऐसी सीटों पर जो भाजपा ने पिछली बार एक लाख के कम के अंतर से जीती थीं। ऐसी सीटों की संख्या कुल 77 थी। अगर विपक्ष पूरा जोर लगा दे, तो यहां भाजपा को तगड़ी पटखनी दी जा सकती है। अगर विपक्ष इन 77 में से 60 सीटें निकाल लेता है, तो भाजपा 302 से घटकर 242 पर आ जाती है। ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में विपक्ष का एक होना कितना जरूरी है। भाजपा ने पिछली बार यूपी में 20 सीटें एक लाख के कम के अंतर से जीती थी। यानी अगर अखिलेश, कांग्रेस, जयंत चौधरी एक हो जाते हैं, तो यूपी में भाजपा की 20 सीटें कम हो जाने की गुंजाइश निकलती है।
आंकड़ों के हिसाब से यह आंकड़ेबाजी रोचक लग रही है। लेकिन भाजपा दो बार से चुने जा रहे सांसदों का नया सिरे से सर्वे करवा रही है। एंटी इनकम्बेंसी दूर करने की कोशिश कर रही है।
दूसरा सवाल गठबंधन का है। विपक्ष का कहना है कि महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बिहार और झारखंड में मजबूत गठबंधन बन चुका है। इन राज्यों की कुल 142 सीटें (पुडुचेरी मिलाकर) हैं, जहां विपक्ष का स्ट्राइक रेट 80 फीसदी पार होना चाहिए, अगर उसे सत्ता में आते हुए दिखना है। उधर कहा जा रहा है कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में कांग्रेस को गठबंधन की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि वहां उसे किसी अन्य विपक्षी दल का डर नहीं है। (कुछ हद तक गुजरात में आप का डर जरूर है)। इन राज्यों में कुल 130 सीटें आती हैं, जहां भाजपा पिछली बार 122 सीटें जीती थी। यहां कांग्रेस को अकेले ही लड़ना है।
तीसरी श्रेणी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और पंजाब जैसे राज्यों की है, जहां कुल सीटें 142 हैं। सारा पेच यहीं आकर फंसा हुआ है। अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के पाले में गेंद है। दरअसल सारी कुर्बानी यहीं दिखाई जानी है और एकता नहीं हुई तो सारा रायता भी यहीं फैलना है। मजाज साहब यों ही नहीं लिख गए : बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना/तेरी जुल्फों का पेच-ओ-खम नहीं है।